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अक्टूबर 27, 2025
📚 विषय सूची
- प्रस्तावना
- परमेश्वर प्राप्ति का क्षण
- दैवी आदेश और चैतन्य जागृति
- अंधविश्वास से सत्यमार्ग की ओर यात्रा
- विश्व की एकमात्र आँख और भय का अनुभव
- तीन महीने की विदेह अवस्था
- शुद्धि प्राप्ति के बाद नया जीवन
- ‘महान त्यागी’ उपाधि
- आध्यात्मिक संदेश
- निष्कर्ष
प्रस्तावना
मानव जाति के आध्यात्मिक इतिहास में अनेक संत, साधक और महात्मा हुए हैं जिन्होंने ईश्वर प्राप्ति का अद्भुत अनुभव किया। परंतु कुछ का जीवन स्वयं परमेश्वर में विलीन होने की अवस्था का प्रतीक बन गया।
ऐसे ही महान संतों में से एक हैं महानत्यागी बाबा जुमदेवजी , जिन्होंने आत्मसाक्षात्कार का सर्वोच्च चरण — विदेह अवस्था — प्राप्त किया।
25 अगस्त 1948, श्रावण वद्य षष्ठी के दिन, बुधवार के शुभ समय पर, बाबाजी ने भगवत् प्राप्ति की और उसी क्षण से वे निराकार अवस्था में चले गए। यही वह अवस्था है जहाँ मन, शरीर और आत्मा पूरी तरह परमेश्वर में विलीन हो जाते हैं।
परमेश्वर प्राप्ति का क्षण
उस दिन का अनुभव अत्यंत अलौकिक था। बाबा जुमदेवजी परमेश्वर में इतने एकरूप हो गए कि उनके शरीर में कोई हलचल नहीं रही। यह दिव्य स्थिति देखकर परिवार के लोग चिंतित हो उठे। वे चाहते थे कि बाबा इस स्थिति से मुक्त हो जाएँ।
सभी ने मिलकर परमेश्वर से प्रार्थना की —
“हे प्रभु, सेवक की यह स्थिति कब तक रहेगी? कृपया इसे समाप्त करें।”
तब परमेश्वररूप बाबा ने उत्तर दिया —
“अब सेवक भगवान का हो गया है, किसी और का नहीं। मेरा सिर सेवक का शरीर और सेवक का सिर मेरा शरीर — इस प्रकार विलय हो चुका है।”
ये वचन बताते हैं कि बाबा और परमेश्वर का अस्तित्व एक हो चुका था।
दैवी आदेश और चैतन्य जागृति
इस अनुभव के बाद बाबा ने अपने परिवार को एक विशेष दैवी आदेश दिया —
“सेवक केवल साधा भोजन करेगा — दाल, चावल, सब्ज़ी और घी। और किसी भी स्त्री की परछाई सेवक पर नहीं पड़नी चाहिए।”
यह आदेश उनकी दैवी शक्ति का प्रतीक था, क्योंकि परमेश्वर ने उन्हें अनोखी चैतन्य जागृति प्रदान की थी, जो आज भी असंख्य भक्तों द्वारा अनुभव की जाती है।
इसी दिन से उनकी बड़ी वहिनी सीताबाई में आने वाली पार्वती शक्ति समाप्त हो गई। घर में फैले दुःख, बाधाएँ और अंधविश्वास सब मिट गए। वातावरण में शांति और आनंद फैल गया।
अंधविश्वास से सत्यमार्ग की ओर यात्रा
बाबा के परिवार में कुछ त्योहार नहीं मनाए जाते थे — विशेषकर पोला पर्व।
परंतु परमेश्वर प्राप्ति के बाद उन्हें आदेश मिला कि पोला पर्व मनाया जाए।
श्रावण अमावस्या के दिन यह पर्व मनाने का निश्चय हुआ। उसी सुबह घर के दरवाजे पर एक विशाल सर्प कुंडली मारकर बैठा था। किसी और को वह दिखाई नहीं दिया, परंतु बाबा ने उसे देखा।
उन्होंने सर्प के सिर पर हल्के से लकड़ी मारी और सर्प तत्क्षण मृत हो गया।
बाबा ने कहा —
“यह सर्प एक भटकती आत्मा थी जो आज मोक्ष को प्राप्त हुई।”
उस घटना के बाद परिवार की सभी बाधाएँ समाप्त हो गईं और घर में स्थायी शांति स्थापित हुई।
विश्व की एकमात्र आँख और भय का अनुभव
विदेह अवस्था में रहते हुए बाबा जुमदेवजी को बार-बार विश्व में एक ही विशाल आँख दिखाई देती थी। वह अनुभव उन्हें भयभीत करता था। उन्होंने अपने बड़े भाई बाळकृष्णजी से कहा —
“भैया, मुझे इस घर और विश्व में बस एक ही आँख दिखाई देती है, जिसे देखकर मुझे डर लगता है। मैं आज तेरे पास सोऊँगा।”
रात में उन्हें बाबा हनुमानजी की विशाल आकृति दिखाई देती।
बाबा कहते — “तू हनुमानजी से कह दे, मेरे भाई को परेशान न करे।”
बाळकृष्णजी हर बार कपूर जलाकर प्रार्थना करते।
यह अनुभव दर्शाता है कि बाबा पूर्णतः परमेश्वर में विलीन हो चुके थे।
तीन महीने की विदेह अवस्था
बाबा की यह स्थिति लगभग तीन महीने तक रही।
एक दिन उन्होंने परिवार से कहा —
“घरवाले सुनो, तुम सब लोग तीन महीने तक भगवान से विनती करो कि मेरे भाई की यह अवस्था समाप्त कर उसे फिर गृहस्थ जीवन में रखो।”
सभी ने रोज़ सुबह सूर्य निकलने से पहले कपूर और अगरबत्ती जलाकर प्रार्थना की।
तीन महीने बाद एक दिन सुबह बाबा को शुद्धि प्राप्त हुई।
शुद्धि प्राप्ति के बाद नया जीवन
विदेह अवस्था के अंत के बाद बाबा पुनः सामान्य जीवन में लौटे।
उन्होंने अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए व्यवसाय आरंभ किया। उस समय उनकी आयु केवल 28 वर्ष थी।
भगवत् प्राप्ति के पश्चात उनका नाम और कार्य दूर-दूर तक प्रसिद्ध हुआ। लोग उनके दर्शन करने आने लगे और उनके मार्गदर्शन में सेवक बनने लगे।
इस प्रकार वे “सद्गुरु समर्थ बाबा जुमदेवजी” के रूप में पूजनीय बन गए।
‘महान त्यागी’ उपाधि
5 अगस्त 1984 को उनके सेवकों ने उन्हें ‘महान त्यागी’ की उपाधि प्रदान की।
16 अगस्त 1984 से सभी सेवक उन्हें इसी नाम से संबोधित करने लगे।
उनका जीवन मानवता के लिए प्रेरणादायी बन गया। उन्होंने सिखाया कि सच्ची साधना का अर्थ है — सेवा, समर्पण और एकता।
आध्यात्मिक संदेश
बाबा की विदेह अवस्था केवल एक चमत्कार नहीं थी, बल्कि मानवता के लिए एक गहन संदेश थी —
- अंधविश्वास से मुक्त हो
- परमेश्वर की असीम भक्ति करो
- सेवा को ही साधना मानो
- और मानवता को ही धर्म समझो
उनके जीवन से यह स्पष्ट होता है कि परमेश्वर प्राप्ति का अर्थ शरीर त्यागना नहीं, बल्कि शरीर के माध्यम से ईश्वर का प्रकट होना है।
निष्कर्ष
महान त्यागी बाबा जुमदेवजी की विदेह अवस्था मानवता के आध्यात्मिक इतिहास की एक अनोखी घटना है।
उनके जीवन से यह सीख मिलती है कि परमेश्वर प्राप्ति और सेवा — यही जीवन का सच्चा उद्देश्य है।
आज भी उनके आश्रम में प्रसन्नता, चैतन्य और शांति का अनुभव होता है, क्योंकि वहाँ वह दैवी शक्ति आज भी जागृत है — जो प्रत्येक भक्त के हृदय में प्रेम, सेवा और सत्य की प्रेरणा जगाती है।
🌸 परमात्मा एक 🙏 सेवा ही साधना है 🌸





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